Jalsu Pass Trek | जालसू जोत यात्रा (2016) | भाग- II
जालसू जोत यात्रा (2016) | भाग- I में आपने पढ़ा की कैसे हम भीगते हुए प्रेईं गोठ तक पहुँचते हैं जो आज रात हमारा ठिकाना होगा।
अब आगे-
हम दोनों को मिला कर डेरे में कुल 5 लोग हैं। बीमार पिताजी, उनकी धर्म पत्नी व एक अन्य मुसाफिर। कुकिंग का जिम्मा अंकल का है जो मिट्टी के तेल के लैंप की रौशनी में रात का खाना बना रहे हैं। आंटी सिर्फ़ मोरल सपोर्ट के लिए मौजूद हैं। चूल्हे के पास बैठ कर 'चाय पर चर्चा' शुरू होती है। मुद्दा है - सूबे की राजनीति। हम दोनों ही गद्दी भाषा समझने में असमर्थ हैं इसलिए सब-टाइटल्स से काम चल रहे हैं। अपने पल्ले सिर्फ इतना पड़ रहा है की तत्कालीन माननीय वन मंत्री जी केकाण्ड किस्से धौलाधार के इस तरफ़ भी उतने ही मशहूर हैं जितने की चम्बा वाली तरफ़।
नितिन छत की कड़ियों से उल्टी लटकी चमगादड़ों को देख कर हैरान-परेशान है जो वास्तव में सर्दियों के लिए सुखा कर रखा हुआ मांस है। बीमार पिताजी बताते हैं की उनके दो बेटे हैं। दोनों ही सरकारी मुलाजिम हैं। जो बेटा स्कूटर पर सुबह मिला था वो बिनवा जल-विद्युत परियोजना में कर्मचारी है। अंकल गर्मियों में अपनी भेड़ बकरियों के साथ प्रेईं आ जाते हैं अस्थाई दुकान चलाने। घर परिवार समृद्ध है लेकिन अब जिनका दिल इन पहाड़ों में बसता हो उन्हें ईंट पत्थर के मकान कहाँ भाते हैं।
जो डेरे में दूसरे मुसाफ़िर हैं उनका नाम है सोनू कपूर। जनाब होली के गांव त्यारी के रहने वाले हैं और होली-बजोली जल-विद्युत् परियोजना में सुपरवाइजर की नौकरी करते हैं। जमीनें धौलाधार के दोनों ओर हैं इसलिए आना जाना लगा रहता है। जमीन के काम से उत्तराला आए थे और अब अपने बैल के साथ जोत पार कर के वापिस घर जा रहे हैं। दोपहर से ही प्रेईं में डेरा जमाए बैठे हैं इस उम्मीद में कि अगर बारिश रुक गई तो जोत पार कर लेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसलिए अब कल हमारे साथ ही निकलेंगे।
"चलो अच्छा है जोत पार करने के लिए साथ मिल गया", नितिन कहता है।
भारी मन से नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर देते हैं। फिर रात्रिभोज के बाद शुरू होती है सोने की तैयारी। अपने पास एक ही स्लीपिंग बैग है जिसमें दोनों को ज़बरदस्ती एडजस्ट होना है। कमरे में एक बकरी भी है जिसकी में-में का बैकग्राउंड म्यूजिक सारी रात मेरे कान के पीछे बजता रहता है।
अगली सुबह रात का गीला टेंट लपेटने के चक्कर में हमने डेरे में ही 7 बजा दिए हैं। ऊपर से नितिन ठहरा क्रांतिकारी आदमी। अपनी इसी क्रन्तिकारी सोच का परिचय देते हुए सुबह चलने से पहले अपना डंडा फेंक देता है। कहता है,
"आज बिना डंडे के जोत पार करके वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाऊंगा।"
हम सबने साथ में चलना शुरू किया था। कुछ ही देर में सोनू भाई और उनका बैल हमसे 8-10 फ़ीट की लीड ले लेते हैं। आगे घना जंगल है। अब लीड एफ.पी.एस (FPS) सिस्टम से इस.आई. (SI) सिस्टम में तब्दील होते हुए 100-150 मीटर की हो जाती है।
सुरंग के सर्वे के दौरान पत्थरों पर मार्किंग की गई थी जो आज भी मुसाफिरों के लिए मील के पत्थरों का काम करती है। 2 घंटे चलने के बाद आखिरी पत्थर दिखाई पड़ता है जिस पर 20.3 किलोमीटर लिखा है जो सम्भवतः बिनवानगर कॉलोनी से यहाँ तक की दूरी दर्शाता है। ठीक यहीं से खड्ड पार कर के जोत की आखिरी चढ़ाई शुरू होती है। खड्ड के दूसरी तरफ एक डेरा है जहाँ से एक और मुसाफ़िर सोनू भाई को मिल जाता है। अब तो मानो उन दोनों का टर्बो मोड ही चालू हो गया हो। कुछ ही देर में हमारे बीच का फ़ासला मीटर से किलोमीटर और फिर किलोमीटर से मील में बदल जाता है।
वहीं धूप और चढ़ाई से हमारा संघर्ष जारी है। तभी नितिन के मुँह से विचलित कर देने वाले मार्मिक शब्द निकलते हैं,
"डंडा फेंक कर गलती कर दी। नहीं फेंकना चाहिए था।"
नितिन अब अपने अंदर के क्रन्तिकारी को कोस रहा है। पर अब क्या करें, जहाँ कुछ क्रांतिकारियों की अक़्ल स्थान विशेष पर डंडे खा कर ठिकाने आती है, वहीं कुछ की डंडा फेंक के।
कहते हैं किसी ज़माने में ट्राईबल हिन्दुओं और ट्राईबल मुसलमानों के बीच यहीं कहीं जोत के ऊपर युद्ध हुआ था। उस युद्ध में जीत हुई ट्राईबल हिन्दुओं की। ट्राईबल हिन्दुओं ने खूब मार कुटाई की और कई लाशें बिछा दीं - यहीं जोत के ऊपर। कुछ का कहना है की ये क़ब्रें विभाजन के दौरान हुई मार-काट का नतीजा हैं। मारे गए मुसलमानों की कब्रें यहीं कहीं छुपी हैं। ऐसा मैंने तरुण गोयल साहब के ब्लॉग में पढ़ा था। साल 2012 में अपनी यात्रा के दौरान मौसम खराब होने के चलते वो कब्रें नहीं देख पाए थे। मौसम का मिज़ाज आज भी ख़राब है इसलिए क़ब्रिस्तान ढूंढने का विचार त्याग कर हम जोत से नीचे उतरना शुरू करते हैं।
चम्बा की तरफ ग्लेशियर हैं जिनके ऊपर चलने के हम दोनों ही इच्छुक नहीं हैं। नितिन कोई वैकल्पिक रास्ता ढूंढ़ने की नाकाम कोशिश करता है जिसका निष्कर्ष निकलता है - ग्लेशियर पर ही चलना पड़ेगा। दूर जालसू का पद्धर दिखाई पड़ रहा है जहां सोनू भाई और उनका बैल आगे की तरफ जाते दिखते हैं जो हमसे कुछ ही नॉटिकल मील की दूरी पर हैं। बर्फ़ पर गिरने फ़िसलने की प्रतिस्पर्धा में मैं अनडिस्प्यूटेड चैंपियन रहा हूँ। मैं 2 बार गिरता हूँ। दूसरी बार दोनों टाँगें खड़ी लग जाती हैं।
1 घण्टे बाद जालसू के पद्धर पर पहुंचते हैं जहां एक अस्थाई दुकान लग चुकी है। जान में जान आती है जब पता चलता है की यहाँ मैग्गी बन जाएगी। दाम है सिर्फ 20 रुपये।
किसी भी ट्रैकिंग ट्रेल पर कितना व्यापारीकरण हुआ है यह पता लगाने का सबसे आसान तरीका है वहां लगने वाली अस्थाई दुकानों में चाय और मैगी के दाम। मुझे ये जान कर खुशी हुई कि यहां लोगों में अभी लालच नहीं है। जबकि त्रिउंड में हालात इसके विपरीत हैं। यही मैगी वहां 70-80 रुपए की मिलना मामूली बात है। रास्ते में कुछ दुकानदार तो घर के नल से एक लीटर पानी भरने के भी 20 रुपए तक वसूल करते हैं। सेसिल ओबेरॉय होटल शिमला के दामों को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वो हैं त्रिउंड में
सफर अभी लम्बा है इसलिए अगला स्टॉप याड़ा गोठ ही होगा ऐसा तय करते हैं। नितिन को घुड़दौड़ में महारत हासिल है। स्पीडब्रेकर का काम कर रहे हैं छोटे नाले जो इस वक्त तक नदियों का रूप ले चुके हैं। भागते भागते 1 घण्टा हो गया है लेकिन अभी तक याड़ा गोठ का नामोनिशान नहीं है। ऊपर की तरफ ढलान पर घास के मैदान दिख रहे हैं। नितिन कहता है की धूप बढ़िया लगी है, थोड़ी देर आराम किया जाए। तो हम वहीं बोरिया-बिस्तर फेंक कर सो जाते हैं।
नींद खुलने पर आसपास देखा तो पता चला कि कुछ गड़बड़ है। हम जहाँ सोए थे वो एक क़ब्रिस्तान था। सारी धार ही एक बड़ा कब्रिस्तान है जिस पर 35-40 के करीब कब्रें फैली हैं। संयोगवश ये वही क़ब्रिस्तान है जिसके बारे में हमने पढ़ा था। धक्के से कब्रें खोज निकाली जाती हैं। क्रिस्टोफर कोलम्बस को अमरीका की खोज करने पर कैसी अनुभूति हुई होगी उसका थोड़ा बहुत अंदाज़ा हमें उस दिन हुआ।
याड़ा गोठ में 2 अस्थाई दुकानें लगती हैं। एक फॉरेस्ट रेस्ट हॉउस भी है लेकिन उसमें छत नहीं है। सामने टीले पर एक मंदिर है।
याड़ा गोठ में सोनू भाई और उनका साथी चाचू हमारे इंतज़ार में शराब की 1 पूरी बोतल पी चुके हैं। अगला स्टॉप चन्नी है जो याड़ा से लगभग 2 घण्टे की दूरी पर है। सोनू भाई की टीम को बोतल के प्रभाव से आगे का रास्ता फोरलेन नज़र आ रहा है जिस पर वो बुगाटी वेरॉन की टॉप स्पीड से थोड़ी कम स्पीड पर भाग रहे हैं। कब्रिस्तान की 'एक्सीडेंटल डिस्कवरी' से अपनी टीम के जोश का लेवल भी कंचनजंगा की ऊँचाई पर है। इसलिए चन्नी कैंपसाइट तक दोनों टीमों में रेस बराबर लगी रहती है।
सोनू भाई के साथी चाचू का आज चन्नी में रुकने का विचार है। हम लोग भी चाय पी कर यात्रा के आख़िरी पड़ाव के लिए आगे बढ़ते हैं। चन्नी से सुरही के लिए लगभग 2 घंटे का समय लगता है। सुरही गांव से थोड़ा आगे चलने पर नदी के दूसरी तरफ की पहाड़ी पर लाके वाली माता का मंदिर और 2 एच.आर.टी.सी की बसें दिखाई पड़ती हैं। बसें देख कर हम दोनों निश्चिन्त हो कर आराम फ़रमाने बैठ जाते हैं और सोनू भाई धीरे-धीरे आगे निकल जाते हैं।
हमारे लाके वाली माता पहुँचने तक ज़नाब होली की तरफ़ प्रस्थान कर चुके हैं। उनका फ़ोन नंबर और पता लेने का मौका नहीं मिला। सिर्फ़ नाम और फ़ोटो छोड़ कर और कोई जानकारी नहीं है। लेकिन कहते हैं अगर किस्मत में दोबारा मिलना लिखा हो तो मुमकिन हो ही जाता है। 15 महीने बाद इत्तेफ़ाक़ से इन्ही सोनू भाई से कलाह जोत यात्रा के दौरान सुखडली में मुलाक़ात हो जाती है।
सुरही से 3 गद्दी बकरियां चरा कर हमसे पहले मंदिर के पास अपने डेरे पर पहुँच गए हैं जिन्होंने हमारे लिए चाय तैयार कर दी है। मंदिर के पास की इकलौती दुकान में एच.आर.टी.सी के ड्राइवर टांका लगाने के किस्से साझा कर रहे हैं। वहाँ खाना खा कर हम मंदिर के नीचे की मंजिल में सोने का प्रबंध करते हैं।
सुबह 5:30 बस में बैठ कर चम्बा की ओर प्रस्थान करते हैं। नितिन क्रन्तिकारी आदमी है इसलिए शाम की बस पकड़ के बद्दी के लिए निकल लेता है। मैं एक दिन घर में आराम कर के अगले दिन वापिस बद्दी जाता हूँ और इसी के साथ यात्रा सम्पन्न होती है।
अब आगे-
हम दोनों को मिला कर डेरे में कुल 5 लोग हैं। बीमार पिताजी, उनकी धर्म पत्नी व एक अन्य मुसाफिर। कुकिंग का जिम्मा अंकल का है जो मिट्टी के तेल के लैंप की रौशनी में रात का खाना बना रहे हैं। आंटी सिर्फ़ मोरल सपोर्ट के लिए मौजूद हैं। चूल्हे के पास बैठ कर 'चाय पर चर्चा' शुरू होती है। मुद्दा है - सूबे की राजनीति। हम दोनों ही गद्दी भाषा समझने में असमर्थ हैं इसलिए सब-टाइटल्स से काम चल रहे हैं। अपने पल्ले सिर्फ इतना पड़ रहा है की तत्कालीन माननीय वन मंत्री जी के
लाल टोपीधारी बीमार पिताजी |
नितिन छत की कड़ियों से उल्टी लटकी चमगादड़ों को देख कर हैरान-परेशान है जो वास्तव में सर्दियों के लिए सुखा कर रखा हुआ मांस है। बीमार पिताजी बताते हैं की उनके दो बेटे हैं। दोनों ही सरकारी मुलाजिम हैं। जो बेटा स्कूटर पर सुबह मिला था वो बिनवा जल-विद्युत परियोजना में कर्मचारी है। अंकल गर्मियों में अपनी भेड़ बकरियों के साथ प्रेईं आ जाते हैं अस्थाई दुकान चलाने। घर परिवार समृद्ध है लेकिन अब जिनका दिल इन पहाड़ों में बसता हो उन्हें ईंट पत्थर के मकान कहाँ भाते हैं।
जो डेरे में दूसरे मुसाफ़िर हैं उनका नाम है सोनू कपूर। जनाब होली के गांव त्यारी के रहने वाले हैं और होली-बजोली जल-विद्युत् परियोजना में सुपरवाइजर की नौकरी करते हैं। जमीनें धौलाधार के दोनों ओर हैं इसलिए आना जाना लगा रहता है। जमीन के काम से उत्तराला आए थे और अब अपने बैल के साथ जोत पार कर के वापिस घर जा रहे हैं। दोपहर से ही प्रेईं में डेरा जमाए बैठे हैं इस उम्मीद में कि अगर बारिश रुक गई तो जोत पार कर लेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसलिए अब कल हमारे साथ ही निकलेंगे।
"चलो अच्छा है जोत पार करने के लिए साथ मिल गया", नितिन कहता है।
सोनू भाई (दाएं) |
इन दुकानों में रुकने का कोई पैसा नहीं लगता। सिर्फ़ खाने और चाय के लिए भुगतान करना पड़ता है। लेकिन ये सुविधा त्रिउंड ट्रेक पर भी मिलेगी ऐसा सोचने की भूल मत करियेगा। पैसा न देने पर त्रिउंड के लाला लोग की यूनियन में कपड़े उतरवाने का प्रावधान भी है।
डेरे में हमें घरेलू बनी देसी शराब की पेशकश की जाती है जिसे हमअगली सुबह रात का गीला टेंट लपेटने के चक्कर में हमने डेरे में ही 7 बजा दिए हैं। ऊपर से नितिन ठहरा क्रांतिकारी आदमी। अपनी इसी क्रन्तिकारी सोच का परिचय देते हुए सुबह चलने से पहले अपना डंडा फेंक देता है। कहता है,
"आज बिना डंडे के जोत पार करके वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाऊंगा।"
हम सबने साथ में चलना शुरू किया था। कुछ ही देर में सोनू भाई और उनका बैल हमसे 8-10 फ़ीट की लीड ले लेते हैं। आगे घना जंगल है। अब लीड एफ.पी.एस (FPS) सिस्टम से इस.आई. (SI) सिस्टम में तब्दील होते हुए 100-150 मीटर की हो जाती है।
क्रन्तिकारी नितिन |
प्रेईं गोठ से धौलाधार का दृश्य |
सुरंग के सर्वे के दौरान पत्थरों पर मार्किंग की गई थी जो आज भी मुसाफिरों के लिए मील के पत्थरों का काम करती है। 2 घंटे चलने के बाद आखिरी पत्थर दिखाई पड़ता है जिस पर 20.3 किलोमीटर लिखा है जो सम्भवतः बिनवानगर कॉलोनी से यहाँ तक की दूरी दर्शाता है। ठीक यहीं से खड्ड पार कर के जोत की आखिरी चढ़ाई शुरू होती है। खड्ड के दूसरी तरफ एक डेरा है जहाँ से एक और मुसाफ़िर सोनू भाई को मिल जाता है। अब तो मानो उन दोनों का टर्बो मोड ही चालू हो गया हो। कुछ ही देर में हमारे बीच का फ़ासला मीटर से किलोमीटर और फिर किलोमीटर से मील में बदल जाता है।
वहीं धूप और चढ़ाई से हमारा संघर्ष जारी है। तभी नितिन के मुँह से विचलित कर देने वाले मार्मिक शब्द निकलते हैं,
"डंडा फेंक कर गलती कर दी। नहीं फेंकना चाहिए था।"
नितिन अब अपने अंदर के क्रन्तिकारी को कोस रहा है। पर अब क्या करें, जहाँ कुछ क्रांतिकारियों की अक़्ल स्थान विशेष पर डंडे खा कर ठिकाने आती है, वहीं कुछ की डंडा फेंक के।
जोत की चढ़ाई |
ठीक 11 बजे हम जालसू जोत के टॉप पर पहुँचते हैं।
कहते हैं किसी ज़माने में ट्राईबल हिन्दुओं और ट्राईबल मुसलमानों के बीच यहीं कहीं जोत के ऊपर युद्ध हुआ था। उस युद्ध में जीत हुई ट्राईबल हिन्दुओं की। ट्राईबल हिन्दुओं ने खूब मार कुटाई की और कई लाशें बिछा दीं - यहीं जोत के ऊपर। कुछ का कहना है की ये क़ब्रें विभाजन के दौरान हुई मार-काट का नतीजा हैं। मारे गए मुसलमानों की कब्रें यहीं कहीं छुपी हैं। ऐसा मैंने तरुण गोयल साहब के ब्लॉग में पढ़ा था। साल 2012 में अपनी यात्रा के दौरान मौसम खराब होने के चलते वो कब्रें नहीं देख पाए थे। मौसम का मिज़ाज आज भी ख़राब है इसलिए क़ब्रिस्तान ढूंढने का विचार त्याग कर हम जोत से नीचे उतरना शुरू करते हैं।
बर्फ़ पर संघर्ष |
चम्बा की तरफ ग्लेशियर हैं जिनके ऊपर चलने के हम दोनों ही इच्छुक नहीं हैं। नितिन कोई वैकल्पिक रास्ता ढूंढ़ने की नाकाम कोशिश करता है जिसका निष्कर्ष निकलता है - ग्लेशियर पर ही चलना पड़ेगा। दूर जालसू का पद्धर दिखाई पड़ रहा है जहां सोनू भाई और उनका बैल आगे की तरफ जाते दिखते हैं जो हमसे कुछ ही नॉटिकल मील की दूरी पर हैं। बर्फ़ पर गिरने फ़िसलने की प्रतिस्पर्धा में मैं अनडिस्प्यूटेड चैंपियन रहा हूँ। मैं 2 बार गिरता हूँ। दूसरी बार दोनों टाँगें खड़ी लग जाती हैं।
अ वॉक टू रिमेम्बर |
1 घण्टे बाद जालसू के पद्धर पर पहुंचते हैं जहां एक अस्थाई दुकान लग चुकी है। जान में जान आती है जब पता चलता है की यहाँ मैग्गी बन जाएगी। दाम है सिर्फ 20 रुपये।
किसी भी ट्रैकिंग ट्रेल पर कितना व्यापारीकरण हुआ है यह पता लगाने का सबसे आसान तरीका है वहां लगने वाली अस्थाई दुकानों में चाय और मैगी के दाम। मुझे ये जान कर खुशी हुई कि यहां लोगों में अभी लालच नहीं है। जबकि त्रिउंड में हालात इसके विपरीत हैं। यही मैगी वहां 70-80 रुपए की मिलना मामूली बात है। रास्ते में कुछ दुकानदार तो घर के नल से एक लीटर पानी भरने के भी 20 रुपए तक वसूल करते हैं। सेसिल ओबेरॉय होटल शिमला के दामों को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वो हैं त्रिउंड में लूटमार धंधा करने वाले लाला लोग।
सफर अभी लम्बा है इसलिए अगला स्टॉप याड़ा गोठ ही होगा ऐसा तय करते हैं। नितिन को घुड़दौड़ में महारत हासिल है। स्पीडब्रेकर का काम कर रहे हैं छोटे नाले जो इस वक्त तक नदियों का रूप ले चुके हैं। भागते भागते 1 घण्टा हो गया है लेकिन अभी तक याड़ा गोठ का नामोनिशान नहीं है। ऊपर की तरफ ढलान पर घास के मैदान दिख रहे हैं। नितिन कहता है की धूप बढ़िया लगी है, थोड़ी देर आराम किया जाए। तो हम वहीं बोरिया-बिस्तर फेंक कर सो जाते हैं।
नींद खुलने पर आसपास देखा तो पता चला कि कुछ गड़बड़ है। हम जहाँ सोए थे वो एक क़ब्रिस्तान था। सारी धार ही एक बड़ा कब्रिस्तान है जिस पर 35-40 के करीब कब्रें फैली हैं। संयोगवश ये वही क़ब्रिस्तान है जिसके बारे में हमने पढ़ा था। धक्के से कब्रें खोज निकाली जाती हैं। क्रिस्टोफर कोलम्बस को अमरीका की खोज करने पर कैसी अनुभूति हुई होगी उसका थोड़ा बहुत अंदाज़ा हमें उस दिन हुआ।
एक क़ब्र का फ़ोटो |
याड़ा गोठ में 2 अस्थाई दुकानें लगती हैं। एक फॉरेस्ट रेस्ट हॉउस भी है लेकिन उसमें छत नहीं है। सामने टीले पर एक मंदिर है।
याड़ा गोठ का मन्दिर |
याड़ा गोठ में सोनू भाई और उनका साथी चाचू हमारे इंतज़ार में शराब की 1 पूरी बोतल पी चुके हैं। अगला स्टॉप चन्नी है जो याड़ा से लगभग 2 घण्टे की दूरी पर है। सोनू भाई की टीम को बोतल के प्रभाव से आगे का रास्ता फोरलेन नज़र आ रहा है जिस पर वो बुगाटी वेरॉन की टॉप स्पीड से थोड़ी कम स्पीड पर भाग रहे हैं। कब्रिस्तान की 'एक्सीडेंटल डिस्कवरी' से अपनी टीम के जोश का लेवल भी कंचनजंगा की ऊँचाई पर है। इसलिए चन्नी कैंपसाइट तक दोनों टीमों में रेस बराबर लगी रहती है।
चन्नी कैंप साइट |
सोनू भाई के साथी चाचू का आज चन्नी में रुकने का विचार है। हम लोग भी चाय पी कर यात्रा के आख़िरी पड़ाव के लिए आगे बढ़ते हैं। चन्नी से सुरही के लिए लगभग 2 घंटे का समय लगता है। सुरही गांव से थोड़ा आगे चलने पर नदी के दूसरी तरफ की पहाड़ी पर लाके वाली माता का मंदिर और 2 एच.आर.टी.सी की बसें दिखाई पड़ती हैं। बसें देख कर हम दोनों निश्चिन्त हो कर आराम फ़रमाने बैठ जाते हैं और सोनू भाई धीरे-धीरे आगे निकल जाते हैं।
हमारे लाके वाली माता पहुँचने तक ज़नाब होली की तरफ़ प्रस्थान कर चुके हैं। उनका फ़ोन नंबर और पता लेने का मौका नहीं मिला। सिर्फ़ नाम और फ़ोटो छोड़ कर और कोई जानकारी नहीं है। लेकिन कहते हैं अगर किस्मत में दोबारा मिलना लिखा हो तो मुमकिन हो ही जाता है। 15 महीने बाद इत्तेफ़ाक़ से इन्ही सोनू भाई से कलाह जोत यात्रा के दौरान सुखडली में मुलाक़ात हो जाती है।
लाके वाली माता |
सुरही से 3 गद्दी बकरियां चरा कर हमसे पहले मंदिर के पास अपने डेरे पर पहुँच गए हैं जिन्होंने हमारे लिए चाय तैयार कर दी है। मंदिर के पास की इकलौती दुकान में एच.आर.टी.सी के ड्राइवर टांका लगाने के किस्से साझा कर रहे हैं। वहाँ खाना खा कर हम मंदिर के नीचे की मंजिल में सोने का प्रबंध करते हैं।
होली- चम्बा- चामुण्डा एक्सप्रेस |
सुबह 5:30 बस में बैठ कर चम्बा की ओर प्रस्थान करते हैं। नितिन क्रन्तिकारी आदमी है इसलिए शाम की बस पकड़ के बद्दी के लिए निकल लेता है। मैं एक दिन घर में आराम कर के अगले दिन वापिस बद्दी जाता हूँ और इसी के साथ यात्रा सम्पन्न होती है।
Excellent.. Dhundne se bhagwan bhi mil jate hai... Kabristan kya chiz hai chlo dhokhe se he shi.....
ReplyDeleteहाहा। ये तो बिल्कुल सही कहा आपने। पर ये डिस्कवरी एक्सीडेंटल ही थी। पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद राहुल भाई। :)
Deleteमेरे प्रिय भतीजे मिकलू सॉरी मुझे तुम्हारा निक नेम ही पता है। तुम्हारी ये रोमांचक पर्वत यात्राएं और उनका वर्णन बहुत ही रोचक है। मुझे तुम्हारा ट्रेकिंग का यह शौक और होंसला वाकई काबिले तारीफ़ है। जीते रहो और अपने इन अभियानों में विजई भव
ReplyDeleteNice mayank great. Keep it up.
ReplyDeleteThank you very much sir. :)
DeleteExcellent bro
ReplyDeleteThanks a lot Lokesh bhai.
Deleteमयंक भाई मजा आ गया पढकर...आशा है जल्द हि मिलेंगे.
ReplyDeleteपढ़ने के लिए आपका धन्यवाद भाई जी। कलाह जोत की यात्रा पर नया ब्लॉग लिखा है, उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगा :)
Deleteवाह, बेहद रोमांचक, अच्छा लगा पढ़ कर
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