Jalsu Pass Trek | जालसू जोत यात्रा (2016) | भाग- I

गर्मी पड़ना शुरू हो गई है। साल की शुरुआत किस ट्रेक से की जाये?
इंद्रहार जोत चलते हैं।
इंद्रहार? वो भी अप्रैल-मई में?
हाँ क्यों नहीं। 


बात मार्च 2016 की है। इन दिनों बद्दी में पारा चढ़ना शुरू हो जाता है। साल का आगाज़ कहाँ से किया जाए इस पर मैं और मेरा घुम्मकड़ मित्र नितिन शर्मा कॉलेज में सोच-विचार कर रहे थे। इंद्रहार जोत (4342 मीटर) को पार करने का ख़्वाब नितिन ने उन दिनों से पाल रखा है जब हम पॉलीटेकनिक कॉलेज काँगड़ा में अध्ययनरत थे। एक बार तो जोश जोश में ये बोलते हुए भी सुना था की किसी दिन इंद्रहार पास के टॉप पर साइकिल पहुंचा कर ही दम लूंगा।


खैर तो समस्या ये थी कि अप्रैल-मई महीने में धौलाधार के ऊंचे जोत बर्फ़ से ढके रहते हैं जिन्हें उन दिनों पार करना मुश्किल काम है और बिना साजोसामान व तैयारी के तो प्राणघातक भी सिद्ध हो सकता है। क्योंकि मैंने ट्रेकिंग करियर के शुरुआती कुछ साल जीन की स्किनी पैंट पहन के बेवकूफ़ी के बड़े बड़े कीर्तिमान स्थापित किये हैं इसलिए मैंने इस लिस्ट में एक नया अध्याय जोड़ना ठीक नहीं समझा।

बद्दी में गर्मी मार्च-अप्रैल में ही खत्म हो जाती है। उसके बाद मई में चलता है ब्लोअर। जून आते आते ब्लोअर फर्नेस में बदल जाता है। आखिरी स्टेज में तो सीमेंट प्लांट की भट्ठी और बद्दी के तामपान में सिर्फ 2-4 डिग्री सेंटीग्रेड का ही फर्क रह जाता है। इसी प्रकोप से बचने के लिए यात्रा का योग निकाला गया मई के दूसरे हफ्ते का। लेकिन सबसे ज़रूरी सवाल जिस पर सहमति नहीं बन पा रही थी वो ये था कि जाना कहाँ है?

तभी एक दिन इंटरनेट पर खोजबीन करते हुए तरुण गोयल साहब के एक ब्लॉग पर नज़र पड़ी जिसमें जालसू जोत का ज़िक्र मिला। जालसू जोत (3450 मीटर) धौलाधार पर्वत श्रृंखला के काँगड़ा-चम्बा डिवाइड पर है जो कि बैजनाथ (कांगड़ा) को होली (चम्बा) से जोड़ता है और आमतौर पर अप्रैल-अक्टूबर तक पार किया जा सकता है। पालमपुर-बैजनाथ के शिवभक्त हर साल मणिमहेश यात्रा के लिए इसी जोत को लाँघ कर पहले होली पहुँचते हैं और फिर वहां से सुखडली जोत (4618 मीटर) पार कर के मणिमहेश डल पर। आधा अधूरा होमवर्क करने के बाद हम दोनों ने जालसू जोत का नाम फ़ाइनल किया।
जालसू जोत (3450 मीटर)  यात्रा- 2016  

तय दिन पर हम तीनों चंडीगढ़ से बैजनाथ के लिए रात की बस पकड़ कर निकल पड़े। मैं, मेरा मित्र नितिन और हमारा एक 'इमेजिनरी दोस्त'। इस तीसरे काल्पनिक दोस्त की मनगढ़ंत कहानी मेरे घुमक्कड़ दोस्त नितिन ने घर में परमिशन लेने के लिए गढ़ी थी।

बस अभी सेक्टर 43 से मुश्किल से बाहर निकली होगी कि ज़ोर की आंधी के साथ बारिश शुरू हुई। अगले कल मौसम कैसा रहेगा आधा सफ़र इसी चिंता में निकल गया और बाकी का आधा हिमाचल पथ परिवहन निगम की बस की सबसे पीछे की रॉलर कॉस्टर नुमा सीट पर उछलने में। सुबह के 4 बजे बैजनाथ पहुंचना होता है। बस स्टैंड पर कुछ टैक्सी चालक पहले से घात लगाए बैठे हैं जो 'मात्र' 1000 रुपये में उत्तराला ले जाने की पेशकश करते हैं। इस पर मैं कहता हूँ,

"जी धन्यवाद। हम थोड़ी देर के बाद बस में 30 रुपये दे के जाना पसन्द करेंगे।"

बैजनाथ-उत्तराला एक्सप्रेस 
सुबह उत्तराला की बस मिलती है 9 बजे। बैजनाथ में बस लगभग खाली है। पपरोला में 50-60 लोग भेड़-बकरियों की तरह बस में भर लिए जाते हैं। लगभग एक घण्टे के बाद हम उत्तराला पहुंचते हैं। वहां एक दुकान से कुछ ज़रूरत का सामान और थोड़ी जानकारी लेकर हम बिनवानगर कॉलोनी से 10 बजे पैदल चलना शुरू करते हैं।

थोड़ा आगे चलने पर बिनवा जल विद्युत परियोजना का बिजलीघर है। बाहर बैठे चौकीदार से हमनें शॉर्टकट पूछा। पहले तो हमसे ये तहकीकात की जाती है कि हमारे पास भाँग-बूटी कुछ है या नहीं? अगर है तो पिला जाओ, और अगर नहीं है तो बिजलीघर के बायीं तरफ से ऊपर डैम तक शॉर्टकट है। वहां से चले जाओ। अब हम चढ़ाई चढ़ना शुरू करते हैं।

आज का कार्यक्रम है: उत्तराला - बखलुडु - खोटरुडु - प्रेईं 

दुर्भाग्यवश भाग्यवश चलने से पहली मेरी नज़र बाहर लगे एक बोर्ड पर पड़ी जिस पर 'हेड-226 मीटर' लिखा था।

आपका इंजीनियरिंग का करियर भले कितनी ही शार्ट अटेंडेंस से सुसज्जित रहा हो और पेपर आपने कितना ही रोना धोना कर के पास किये हों लेकिन जब ऐसा कहीं लिखा दिखाई पड़े तो इसका मतलब समझना मुश्किल नहीं होता है कि डैम यहां से 226 वर्टीकल मीटर की ऊंचाई पर है।

बिनवा जलविद्युत परियोजना का जलाशय  

तो अब शुरू होता है हाथों पैरों से चढ़ाई का दौर। जब 10 किलो वज़नी बैग पीठ पर हो और सूर्यदेव भी कृपा के मूड में न हों तो और किया भी क्या जा सकता है। ठीक 11 बजे हम जलाशय पर पहुँचते हैं। पहुंचते पहुंचते फेफड़े मुँह में आ गए हैं और सारा जोश पसीने के साथ बह चुका है।

आगे गाड़ी के लायक कच्चा रास्ता है। पास में पगडण्डी भी है। लगभग 20-25 साल पहले राज्य सरकार ने जालसू जोत के नीचे होली-उत्तराला सुरंग बनाने का चुनावी वादा किया था ताकि भरमौर घाटी का सर्दियों में शेष भारत से सम्पर्क न कटे। सर्वे के लिए बजट मिला। सर्वे भी हुआ। लेकिन सुरंग नहीं बनी। सुरंग शिमला में सचिवालय के किसी कोने में रखी अलमारी में दबी हुई किसी फ़ाइल में बंद है। ये कच्चा रास्ता सरकार की उसी 'महत्वकांशी' परियोजना का हिस्सा है। तभी स्कूटर पर एक सज्जन आते दिखाई देते हैं। नितिन समझदारी दिखाते हुए एक सवाल दागता है-

नितिन: जी प्रेईं के लिए कितना वक़्त लगेगा?

सज्जन: शाम 5-6 बजे तक पहुंच ही जाओगे। मैं 1 किलोमीटर आगे अपने पिताजी को छोड़ के वापिस आ रहा हूँ। वो भी प्रेईं जा रहे हैं। वो बीमार हैं सो आपको रास्ते में मिल जाएंगे।


बकलुडडु धार का दृश्य 

आगे 2 घण्टे बाद बखलुडु आता है। बखलुडु में 2 चाय की दुकानें हैं। दुकानदार कह रहा है कि जल्दी भागो, मौसम खराब होने वाला है। बीमार पिताजी का कोई अता पता नहीं है। आगे का रास्ता घने जंगल के बीच से है। थोड़ा आगे चलने पर मौसम ने करवट ले ली और तेज़ बारिश शुरू हो गई। मैंने अब विंडचीटर पहन लिया है। नितिन ने एक प्लास्टिक शीट ही लपेट रखी है। भीग दोनों फिर भी बराबर रहे हैं। बीच बीच में जानवरों के कंकाल मिल रहे हैं। कहीं सिर्फ़ खोपड़ी तो कहीं पूरा का पूरा भैंसा। इतना सब हमें ये एहसास दिलाने के लिए काफी है की हम किसकी टेरिटरी में हैं।

खोटरुडु के लिए रास्ता 

शाम के 5 बज रहे हैं और 'बीमार पिताजी' का दूर दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है। बारिश पिछले 3 घन्टों से जारी है। तभी दूर पहाड़ी पर गद्दियों के डेरे दिखाई पड़ते हैं। दोनों निश्चिन्त हो जाते हैं कि प्रेईं पहुंच गए। पहले सूप पियेंगे या चाय; बहस का मुद्दा अब ये है। लकड़ी काटने के लिये नितिन एक शस्त्र लाया है जो न तो तलवार की कैटेगिरी में आता है और न ही चाकू की। उसका नामकरण "मचैते" किया जाता है। ये मचैते 'यूनिवर्सल मल्टीपर्पज़ टूल' है। भालू और रीछ से सेल्फ डिफेंस हो या रात की सब्जी काटने का जुगाड़; सब काम करता है।

मचैते 

लकड़ियाँ इकठ्ठी कर के डेरों के पास पहुंचते हैं तो पता चलता है कि ये खोटरूडु है। प्रेईं के लिए अभी 1 घण्टा और लगेगा। ये सुन कर नितिन को सदमा लगता है। काटी हुई लकड़ी वहीं पटक कर आगे की दांडी यात्रा शुरू होती है।

खोटरुडु धार 

अब तक हिम्मत और घुटने दोनों जवाब दे चुके हैं। रही सही कसर बारिश ने पूरी कर दी है। आगे चलने पर मेरा पैर पानी के गड्ढे में पड़ता है और घुटने तक टांग अंदर चली जाती है। नितिन हंस रहा है। शायद अभी तक सदमे में है। अब बारिश के साथ ओले पड़ना भी चालू हो गए हैं। कंचे के साइज़ जितने बड़े बड़े ओले मोर्टार की भांति सिर पर बरस रहे हैं। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरी गंजी खोपड़ी में छेद हो जाएगा। नितिन भी डिफेंसिव मोड में सिर पर हाथ रख के भाग रहा है। उसके हाथों पर ओलों से नील पड़ गए हैं। सदमा गहरा है इसलिए उसका हंसना अभी भी जारी है।

तभी दूर एक इंसानी आकृति दिखाई देती है। हो न हो ये 'बीमार पिताजी' हैं; नितिन मुझसे कहता है। नितिन सही था। पता चलता है कि हमारी आने की सूचना उनके बेटे ने सुबह ही फोन पर दे दी थी। कहते हैं,
"1 किलोमीटर आगे मेरा डेरा है। वहां आग जली है। अंदर जा के बैठ जाओ; मैं भी थोड़ी देर में पहुँचता हूँ।"

ऐसे मौसम में सर ढकने को छत मिल जाये तो भला और क्या चाहिए। मैं खुश हूँ, लेकिन नितिन क्रन्तिकारी आदमी है। बोलता है डेरे में नहीं रुकेंगे, चाय पी के बाहर अपना टेंट लगाएंगे।

हौंसले पस्त, शर्मा जी फिर भी मस्त  

अब बाहर जा के टेंट लगाने की असफ़ल कोशिश की जा रही है। तूफ़ान इतना है जैसे किसी ने प्रोजेक्ट की पेनस्टॉक सिर पर खुली छोड़ दी हो। मैं अलादीन के कालीन की तरह ग्राउंड शीट पकड़ के बैठा हूँ जो की मेरे समेत उड़ने की कगार पर है। टेंट की फ्लाईशीट उड़ गयी है जिसे पकड़ने के लिए नितिन पीछे दौड़ गया है। एक तरफ 2 पेग गाढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ के उखड़ जा रहे हैं। जब तक फ्लाई शीट आती है तब तक हमारा तम्बू 3 इंच गहरे पानी से भर चुका है। अंत में नितिन भारी मन से वापिस डेरे में रुकने का निर्णय लेता है। मुझे भला क्या आपत्ति होगी। इसलिए दोनों सामान समेट कर वापिस जाते हैं।

अगले भाग में संघर्ष जारी रहेगा। 

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