Kalah Pass Trek | मणिमहेश कैलाश यात्रा वाया कलाह जोत (2017) | भाग- I
इंजीनियरिंग की एक किताब है "अ कोर्स इन इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक मेजरमेंटस एंड इंस्ट्रुमेंटेशन" के नाम से। 1500 पन्नों की ये किताब भावी इंजीनियरों के लिए किसी बाइबल से कम नहीं है। 5 दशक पुरानी इस किताब के लेखक का अब निधन हो चुका है लेकिन अभी भी इतनी ज़बरदस्त सेल है कि उनका सुपुत्र आज दिन तक किताब की रॉयल्टी के चेक बटोर रहा है।
अपनी इंस्ट्रुमेंटेशन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दिनों में कई सेमेस्टरों में नैय्या पार लगाने का श्रेय इसी महान किताब को जाता है जिसे अपन लोग उस जमाने में 'मदर-बुक' कहा करते थे। किताब की एहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गर्मियों में हफ़्ता भर न नहाने वाले लड़के लोग भी सुबह शाम इस किताब को धूप-अगरबत्ती किया करते थे।
ठीक ऐसा ही रुतबा हिमाचल की ट्रेकिंग फ्रेटर्निटी में www.tarungoel.in वेबसाइट का है। वेबसाइट नहीं ज्ञान का भंडार है जो मेरे जैसे नौसिखिए ट्रैकरों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। संक्षेप में अगर इस वेबसाइट को "हिमाचल में ट्रेक्किंग की बाईबल" कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
मेरी आज तक की लगभग सभी यात्राएं तरुण गोयल साहब की इस वेबसाइट से ही प्रेरित रही हैं। किसी भी ट्रेक पर जाने से पहले गुरुदेव से सलाह-मशवरा लेने के बाद ही मेरी आगे की रणनीति तय होती है।
मणिमहेश कैलाश की यात्रा वाया कलाह जोत से करने का आईडिया भी मुझे यहीं से मिला।
कलाह जोत (समुद्रतल से ऊँचाई - 4618 मीटर) - पीर पंजाल श्रृंखला |
वास्तव में इस यात्रा के बीज दो साल पहले 2015 की मणिमहेश यात्रा में ही बोए जा चुके थे। दरअसल 2013 और 2015 में यात्रा पर परम्परागत रूट (वाया हड़सर- धन्छो) से हो कर जाना हुआ था। यात्रा के दौरान इस ट्रेल पर श्रद्धालु कितना भीषण 'गदर' मचाते हैं इस बात से हम भली भांति परिचित हो गए थे। इसलिए 2017 में किसी अल्टरनेट रुट से जाने का प्लान बना और कलाह जोत (4618 मीटर) को फाइनल किया गया।
इस यात्रा में मेरा पार्टनर है- क्रांतिकारी नितिन शर्मा। 15 महीनों के अंतराल के बाद टीम जालसू अपने अगले एडवेंचर पर निकलने की तैयारी करती है। नितिन पेशे से पार्ट-टाइम इंजीनियर और फुल टाइम क्रांतिकारी है। दोपहर 3 बजे नौकरी से घर पहुंचता है, झोला पैक कर के शाम 7.30 बजे बद्दी से बस पकड़ता है और अगली सुबह 6.30 बजे चम्बा बस अड्डे पर लैंड हो जाता है।
जेल खड्ड में क्रन्तिकारी नितिन |
मेरे घर पर 20 मिनट के पावर नैप और कंप्लीमेंट्री ब्रेकफास्ट के बाद नितिन आगे की यात्रा के लिए फिर रिचार्ज हो जाता है। नितिन की क्रांतिकारी गतिविधियाँ यात्रा शुरू होने से पहले ही चालू हो गई हैं। स्लीपिंग बैग न लाने का पहला ऐतिहासिक 'क्रांतिकारी डिसीजन' बद्दी में ही लिया जा चुका है। अब बारी है दूसरे क्रांतिकारी कदम की।
12 घण्टे की मैराथन जर्नी के बाद चम्बा पहुंचा मेरा मित्र टेंट का फ़ालतु वज़न उठाने के पक्ष में भी नहीं है। ये फ़ैसला समझदारी से लिया हुआ कम और जालसू जोत की यात्रा के अनुभवों से प्रेरित ज़्यादा प्रतीत होता है। खैर फिर भी
नए बस अड्डे से होली के लिए बस 10 बजे मिलेगी। टिकट काउंटर से बुकिंग
सीट पर एक से ज़्यादा दावेदार होने की स्थिति में 'ट्रायल बाय कॉम्बैट' का प्रावधान भी है। इसलिए सीट बुकिंग की जिम्मेदारी सवा दो मीटर लम्बे नितिन को दी गई है।
त्यारी पुल |
ठीक 2 बजे होली गाँव से दो किलोमीटर पीछे त्यारी पुल पर उतरते हैं। यहीं से पैदल रास्ता शुरू होता है। गाँव का नाम निचली त्यारी है। उपरली त्यारी गाँव के लिए पैदल 1 घण्टा लगेगा।
वैसे अप्पर त्यारी तक वाहन योग्य कच्चा रास्ता भी है जहां त्यारी पुल से टैक्सी कर के पहुंचा जा सकता है। लेकिन न तो सूर्यदेव रहम के मूड में हैं, न मैं वार्म-अप करने के और न नितिन टैक्सी करने के।
नोट- समझदार बनें। बारगेनिंग कर के टैक्सी करें। पसीना कम बहाएं, समय और ऊर्जा दोनों बचायें। जनहित में जारी।
होली हेलीपैड |
इस ट्रेल पर सुविधाओं की बात की जाए तो जिला प्रशासन का रवैया उदासीन है। रास्ते में सिर्फ एक चीज़ की कमी नहीं है और वो है पानी। जगह जगह नल लगे हैं। आईपीएच विभाग ने कलाह तक पानी की पाईप बिछा रखी है जिससे कलाह तक रास्ता भटकने का खतरा भी नहीं है।
नितिन बिना डंडे के जोत लाँघने का विश्व कीर्तिमान बनाने के अभियान पर निकला है। मेरी जादू की छड़ी जो चम्बा के तत्कालीन माननीय मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा भेंट की गई है इस यात्रा में भी मेरे साथ है।
भालू की टेरिटरी |
हम सामने धौलाधार के जोत पहचानने की कोशिश कर ही रहे होते हैं कि तभी ऊपर कांगड़ा के जीजा-साले की जोड़ी वापिस आती दिखाई पड़ती है। साले को
"अगर साले जो कुछ होइ गिया ता में ता सोरियाँ दे पैरे रखने जोगा नी रेहणा।"
होली ख़ास |
त्यारी से कलाह गांव का रास्ता |
चलते चलते शाम के 7 बज चुके हैं और रहने का कोई ठिकाना मिलेगा या खुले आसमान के नीचे डेरा लगाना पड़ेगा इस पर हमारा पिछले 3 घण्टे से वाद विवाद चल रहा है जो अभी भी जारी है।
सारी रात खुले आसमान के नीचे सोने के बाद अगले दिन 4618 मीटर ऊंचा जोत चढ़ने के ख्यालमात्र से ही मेरा फ्यूज उड़ जाता है। इसी सोच-विचार में दूर कलाह गाँव दिखाई पड़ता है।
कलाह गाँव |
इस घाटी का ये आखिरी गाँव है। गाँव मे 20-25 परिवार रहते हैं। एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें 5-7 बच्चे पढ़ते हैं। पांचवीं के बाद गांव के बच्चे पढ़ने के लिए पालमपुर चले जाते हैं। गांव के बीच में केलंग वज़ीर का प्राचीन मन्दिर है।
गांव में एक ही दुकान है जो 'दुकान कम डिपो कम ढाबा कम ठेका' भी है। आसान भाषा में हर मर्ज़ का वन-स्टॉप सॉल्युशन।
केलंग वज़ीर- कार्तिक स्वामी का मंदिर |
ऐसी विषम परिस्थितियों में मैगी और चाय जैसी दैवीय शक्तियां मरे हुए इंसान तक को पुनर्जीवित करने का दम रखती हैं। इसलिए पहुँचते ही सबसे पहले चाय और मैगी की इंक्वायरी की जाती है। रात को रुकने के बारे में पूछ-माँग उसके बाद करते हैं। भाग्यवश गाँव का इकलौता दुकानदार हम दोनों को अपने घर में रुकने की जगह दे देता है।
घर में पहला एनकाउंटर होता है दुकानदार के बच्चों से। पहली झलक में बच्चे क्यूट लग रहे हैं लेकिन गौर से देखने पर दोनों किसी भयानक "डेमोनिक पॅज़ेशॅन" का शिकार हुए मालूम पड़ते हैं। हमें सारा टाइम ये बड़ी बड़ी आँखें फाड़ के घूर रहे हैं।
नितिन 2 घण्टे से उनसे ताबड़तोड़ सवाल पूछ के कुछ जानकारी जुटाने की कोशिश कर रहा है लेकिन कुछ हासिल नहीं होता है और उसका डॉक्यूमेंट्री शूट करने का प्लान लाइट कैमरा एक्शन बोलने से पहले ही दम तोड़ देता है।
दुकानदार के दो 'पॉजेस्ड' बच्चे |
गांव में लकड़ी के बने दोमंजिला घर हैं। नीचे की मंजिल में मवेशी रखते हैं। खुद ऊपर रहते हैं। ऊपर की मंजिल के बरामदे में यात्रियों के रुकने का बंदोबस्त किया गया है। 2 टोलियाँ और भी रुकी हैं जो ताश खेलने और
यहां भी रुकने का कोई पैसा नहीं लिया जाता है। खाना खाने के 60 रुपए प्रतिव्यक्ति लगते हैं। मेरे पास स्लीपिंग बैग है। नितिन को एक कम्बल दिया जाता है जिससे उसके पैर बाहर निकले हैं। अब तक मदिरापान कर चुके बाकी भक्तगण भी ढेर हो गए हैं।
अगली सुबह 6 बजे आगे के लिए प्रस्थान करते हैं।
आज का कार्यक्रम है-
कलाह- द्रम्बड़- जेलखड्ड- सुखडली- कलाह जोत- मनिहमहेश डल
तालंग जोत (समुद्रतल से 4667 मीटर की ऊँचाई) |
2 घण्टे बाद पहली लंगर साईट आती है जहां पर हमें चाय और रस सर्व किये जाते हैं। ये लंगर 'मणिमहेश परिक्रमा यात्रा कमेटी' ने लगाया है।
इसके बाद ड्रम्बड़ कैम्प साईट है जहां वन विभाग का लंगर लगा है। सुबह के 10 बज चुके हैं। लंगर में धाम बनाई गई है जो पालमपुर की धाम की कार्बन कॉपी है। होली घाटी का खानपान, रहन-सहन, रीतिरिवाज चम्बा को बाईपास कर के पालमपुर से मेल खाते मालूम पड़ते हैं।
फॉरेस्ट गार्ड साहब बागी प्रवित्ति के हैं। कहते हैं,
"अच्छा किया जो इस रास्ते से जा रहे हो। बार बार एक ही रास्ते से क्या जाना। कुछ नया ट्राई करो। "
जेलखड्ड का रास्ता |
झरना |
द्रम्बड़ से जेलखड्ड का रास्ता अपेक्षाकृत आसान है। इसलिए ब्रह्मांड की सारी चिंताएं त्याग कर एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा शुरू होती है- रेंज फारेस्ट ऑफिसर की मुख्य परीक्षा में ऑप्शनल सब्जेक्ट का चुनाव कैसे करें।
जेल खड्ड से पहले आख़िरी चढ़ाई |
इस ट्रेल की सबसे बड़ी कैम्पसाइट जेलखड्ड में है जहां 2 बड़ी अस्थायी सराए हैं और 1-2 छोटे टेंट लगे हैं जिनमें कुल 60-70 लोग ठहर सकते हैं।
स्वास्थ्य विभाग का कैम्प भी लगा है। अगर यहां यात्रियों का डोप टेस्ट भी अनिवार्य कर दिया जाए तो 80% यात्रियों के फ़ेल होने की प्रबल संभावना है, ऐसा मेरा गणित कहता है।
आज की तारीख़ में जोत लाँघने वाले हम आख़री लोग हैं। पीछे से आने वाली टोलियाँ जेलखड्ड में ही रुकेंगी।
जेलखड्ड कैंप साइट |
जेलखड्ड से आगे का नज़ारा एक बार अपने ऑप्शन्स एक्सेस करने पर मजबूर करता है। सामने आधा किलोमीटर ऊंची खड़ी दीवार है जो गेम ऑफ थ्रोन्स की 'द वाल' की तरह दिखाई पड़ती है। या तो यहीं रुक जाओ या फिर टर्बो मोड चालू कर दो। क्योंकि बिना स्लीपिंग बैग के सुखडली (4400 मीटर) में रुकना सम्भव नहीं है। मतलब रात का ठिकाना मणिमहेश डल पर ही मुमकिन है।
तो अब फेफड़ों का वर्कलोड ठीक वैसे ही बढ़ जाता है जैसे नोटबन्दी के दौरान बैंक कर्मियों पर काम का बोझ बढ़ा था।
2 लोग ऊपर चढ़ते दिखते हैं जिनकी स्पीड हमसे कुछ कम है इसलिए धीरे धीरे बीच का फासला कम हो रहा है। झरने के पास वे दोनों आराम फरमाने रुके हैं। मेरे फेफड़े भी जवाब देने वाले हैं इसलिए हम भी उनके पास जा के रेस्ट डिक्लेअर करते हैं।
अभी साँस ले ही रहे होते हैं कि तभी पीछे से एक आवाज़ सुनाई पड़ती है,
"मैंने आपको शायद कहीं देखा है।"
संघर्ष अगले भाग में जारी रहेगा।
Dukan km depo. Km theka zyada...!!!
ReplyDeleteये सही भांप गए आप। यात्रा के दिनों में मोनोपोली देखने को मिलती है। बिज़नेस मॉडल भी अच्छा है। दुकान से लो और घर में पी के ढेर हो जाओ।
Deleteडस लिया आपकी लेखनी ने, शानदार. अब अगला पार्ट पढ़ता हूँ
ReplyDeleteआप की यात्राएं अनवरत चलती रहे और लेखन भी बराबर
ReplyDeleteआनंदमय
ReplyDeleteAte sundr bhai
ReplyDeleteमारक मजा आ रहा यात्रा व्रतांत पड़ने में🙏🏻🙏🏻
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